04-07-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन

याद की सहज विधि

यहाँ सभी बैठे हैं तो किस स्टेज की स्थिति में स्थित हैं? इस समय की आपकी याद की स्टेज कौनसी कहेंगे? क्या इस स्थिति में डबल याद है वा सिंगल है? इस समय की स्टेज को कर्मातीत व फरिश्तापन कीस्मृति की स्टेज कहेंगे? जो अव्यक्त स्थिति के सिवाय और कोई स्टेज समझते हैं वह हाथ उठावें। सारे दिन में ऐसी अव्यक्त स्थिति में रहकर के कर्म कर सकती हो? (नहीं) अभी जो लिख रही हो - यह भी तो कर्म है ना। तो अभी कर्म करते हुए ऐसी स्टेज नहीं रह सकती? (अभी बाबा के सम्मुख बैठे हैं) अगर सदैव समझो - बाबा हमारे साथ ही है, सम्मुख है; तो फिर सदैव रहनी चाहिए। वह लोग जब ऐसे वायुमण्डल में खास अटेन्शन रखकर जाते हैं, तो यह अटेन्शन ही इन्हों की सेफ्टी का साधन बन जाता है। ऐसे ही चाहे कोई भी साधारण कर्म भी कर रहे हो। तो भी बीच-बीच में अव्यक्त स्थिति बनाने का अटेन्शन रहे और कोई भी कार्य करो तो सदैव बापदादा को अपना साथी समझकर डबल फोर्स से कार्य करो तो बताओ क्या स्टेज रहेगी? एक तो स्मृति बहुत सहज रहेगी। जैसे अभी सम्मुख समझने से सहज याद है ना। इस रीति अगर सदैव हर कर्म में बाप को अपना साथी समझकर चलो तो यह सहज याद नहीं है? जब कोई सदैव ही साथ रहता है, उस साथ के कारण याद स्वत: ही रहती है ना। तो ऐसे साथी रहने से वा बुद्धि को निरन्तर सत् का संग बनाने से निरन्तर सत्संग होना चाहिए। आप हो ही सत्संगी। हर सेकेण्ड, हर कदम में सत् के संग तो हो ना। अगर निरन्तर अपने को सतसंगी बनाओ तो याद सहज रहेगी और पावरफुल संग होने के कारण हर कर्त्तव्य में आपका डबल फोर्स रहेगा। डबल फोर्स होने कारण जो कार्य स्थिति के हिसाब से मुश्किल समझते हो वह सहज हो जायेगा, क्योंकि डबल फोर्स हो गया। और उस ही समय में एक कर्त्तव्य के बजाय डबल कार्य समाप्त कर सकती हो। एक सहज याद, दूसरी सफलता, तीसरा सर्व कर्म में उमंग-उल्लास और सहयोग की प्राप्ति होती है। इसलिए निरन्तर सत्संगी बनो। आपके पास कोई आते हैं तो आप नियम बताते हो ना कि सदैव सत् का संग रखो। तो यह अभ्यास अपने को भी निरन्तर करना पड़े। फिर याद जो मुश्किल लगती है, सोचते हैं - याद कैसे ठहरे; कहाँ ठहरे यह सभी खत्म हो जायेगा। कर्म की सहज सिद्धि हो जायेगी। इसमें चाहे निराकार रूप से संग करो, चाहे साकार रूप में करो लेकिन सत् का संग हो। साकार का संबंध भी सारे कल्प में अविनाशी रहेगा ना। तो साकारी स्मृति हो वा निराकारी स्मृति हो, लेकिन स्मृति ज़रूर होनी चाहिए। बापदादा के संग के सिवाय और कोई भी संग बुद्धि में न हो। फरिश्ता बनने के लिए बाप के साथ जो रिश्ता है वह पक्का होना चाहिए। अगर अपना रिश्ता पक्का है तो फरिश्ता बन ही जायेंगे। अभी सिर्फ यह अपने रिश्ते को ठीक करो। अगर एक के साथ सर्व रिश्ते हैं तो सहज और सदा फरिश्ते हैं। और है भी क्या जहां बुद्धि जाये। अभी कुछ रहा है क्या? सर्व संबंध वा सर्व रिश्ते, सर्व रास्ते ब्लाक हैं? रास्ता खुला हुआ होगा तो बुद्धि भागेगी। जब सभी रिश्ते भी खत्म, रास्ते भी बंद फिर बुद्धि कहाँ जायेगी। एक ही रास्ता, एक ही रिश्ता तो फिर फरिश्ता बन जायेंगे। चेक करो - कौनसा रास्ता वा रिश्ता अभी तक पूरा ब्लाक नहीं हुआ है। जरा भी खुला हुआ होगा तो लोग कोशिश करेंगे वहाँ से जाने की। बिल्कुल बन्द होगा तो जायेंगे ही नहीं। 

सुराख होगा तो भी उनको टच करके चले जाते हैं। यहाँ भी अगर जरा भी रास्ता खुला होता है तो बुद्धि जाती है। अभी ब्लाक कैसे करेंगे? सर्व रास्ते ब्लाक करने के लिए सहज युक्ति बार-बार सुनाते रहते हैं। रोज मुरली में भी सुनते हो। याद है? विस्मृति को स्मृति दिलाने वाली कौनसी युक्ति है? एक ही चित्र है जिसमें बापदादा और वर्सा आ जाता है। अगर यह चित्र सदैव सामने रखो तो और सभी रास्ते ब्लाक हो जायेंगे? जो भी चित्र वा लिटरेचर आदि छपाते हो तो आप यही ब्लॉक डालते हो ना। अगर यही एक ब्लॉक बुद्धि में लगा हुआ हो तो सभी रास्ते ब्लाक नहीं हो जायेंगे? यह सहज युक्ति है। और निशानी भी दी हुई है। यह तो रोज़ मुरली में सुनते हो। कोई भी मुरली ऐसी नहीं होगी जिसमें यह युक्ति न हो। यह बहुत सहज है। छोटे बच्चों को भी कहो कि यह चित्र सदैव अपनी स्मृति में रखो तो वह भी कर सकते हैं। भले बैज लगाते हो लेकिन अभी बुद्धि में स्मृति-स्वरूप बनो। इस एक ही चित्र के स्मृति से सब स्मृतियां आ जाती हैं। सारे ज्ञान का सार भी इस एक चित्र में समाया हुआ है। रचयिता और रचना के ज्ञान से यह प्राप्ति हो गई ना। जितना इन सहज युक्तियों को अपनाते जायेंगे तो फिर मेहनत सरल हो जायेगी। मूँझो नहीं - याद किसको कहें, क्या याद करें, पता नहीं यह याद होती है वा नहीं। जानबूझकर अपने को मुँझाते हो। याद क्या है? बाप की याद वा बाप के कर्म द्वारा बाप की याद वा बाप के गुणों द्वारा बाप की याद है - तो वह याद हुई ना। रूप की याद हो वा नाम की वा गुण वा कर्त्तव्य की, याद तो एक ही हुई ना। आप लोग बड़ा मुश्किल बना देते हो। याद कोर्स को मुश्किल-मुश्किल करते फोर्स नहीं आता है। कोर्स में ही रह जाते हो। उनको सहज करो। बाबा के सिवाय कुछ है ही क्या। जब प्रैक्टिकल में सर्व स्नेही बाप को ही समझ लिया तो फिर उसको याद करने लिए कोई प्लैन सोचा जाता है क्या? सहज बात को कब कोई मुश्किल कर देता है और कहाँ अब तक भी रास्ता खुला हुआ है, इसलिए बार-बार बुद्धि को मेहनत कर लौटाना पड़ता है। इसमें थक जाते हो। माथा भारी हो जाता है। मुश्किल समझ मुश्किलात में पड़ जाते हो। तो सहज तरीका है - पहले इन सभी रास्तों को बन्द करो। जैसे गवर्नमेन्ट एलान करती है ना - यह बन्द करो। तो आप लोगों के लिए भी बापदादा का यही फरमान है पहले तो सभी रास्ते बन्द करो। फिर मुश्किल से छूट जायेंगे। सहज हो जायेगा। फिर नेचरल हो जायेगा। यह अटेन्शन रखना मुश्किल है वा सहज है? मुश्किल है नहीं, लेकिन मुश्किल बना देते हैं। अगर यह अटेन्शन समय-प्रति-समय रखते रहें तो मुश्किल नहीं होता। कुछ अलबेलेपन में रहते आये हो, इसलिए अब मुश्किल लगता है। जैसे छोटेपन में जो भी बातें सिखाई जाती हैं तो वह सहज स्मृति में रहती हैं। जितना बड़ा होता है, बड़ेपन में कोई बात स्मृति में लाना मुश्किल हो जाता है। इसमें भी जिन्होंने बचपन से ही यह अटेन्शन रखने का अभ्यास किया है उन्हों का आज भी नेचरल याद का चार्ट रहता है। और जो भी इस अटेन्शन रखने में शुरू से अलबेले रहे हैं तो उन्हों को अब मुश्किल लगता है। अब तो बीती सो बीती कर सदैव ऐसे समझो कि मैं बच्चा हूँ, बाप के साथ हूँ। यह समझने से वह बचपन की जीवन स्मृति में रहेगी। जितना यह स्मृति में रहेगा तो उससे मदद मिलेगी। फिर मुश्किल कार्य सहज हो जायेगा। अभी से ही अपने को एक सेकेण्ड भी बाप से अलग न समझो। सदैव समझो - बाप का साथ भी है और बाप के हाथ में मेरा हाथ भी है।

अगर कोई बड़े के हाथ में हाथ होता है तो छोटे की स्थिति बेफिक्र होती, निश्चिंत रहती है। तो समझना चाहिए - हर कर्म में बापदादा मेरे साथ भी है और हमारे इस अलौकिक जीवन का हाथ उनके हाथ में है अर्थात् जीवन उनके हवाले है। ज़िम्मेवारी उनकी हो जाती है। सभी बोझ बाप के ऊपर रख अपने को हल्का कर देना चाहिए। बोझ ही न होगा तो कुछ मुश्किल लगेगा? बोझ उतारने वा मुश्किल को सहज करने का साधन है - बाप का हाथ और साथ। यह तो सहज है ना। फिर चाहे बाप स्मृति में आये, चाहे दादा स्मृति में आये। बाप की स्मृति आयेगी तो साथ में दादा की भी रहेगी ही। दादा की स्मृति से बाप की स्मृति भी रहेगी। अलग नहीं हो सकते। अगर साकार स्नेही बन जाते हो, तो भी और सभी से बुद्धि टूट जायेगी ना। साकार स्नेही बनना भी कम बात नहीं। साकार स्नेह भी सर्व स्नेह से, संबंधों से बुद्धियोग तोड़ देता है। तो अनेक तरफ से तोड़ एक तरफ जोड़ने का साधन तो है ना। साकार से निराकार तरफ याद आयेगा। साकार से स्नेह भी तब पैदा हुआ जब बाप, दादा दोनों का साथ हुआ ना। अगर बाप, दादा का साथ न होता तो साकार इतना प्रिय थोड़ेही होता। जैसे बाप, दादा दोनों साथ-साथ हैं वैसे आप की याद भी साथ- साथ हो जायेगी। ऐसे कभी नहीं समझना कि मुश्किल है। सहज योगी बनो। मुश्किल योगी तो द्वापर से लेकर बनते आये। हठयोगियों को तो आप कट करते हो ना। आप भी सहज योगी न बने और फिर मुश्किल कहा, तो एक ही बात हो गई। सहज योगी बनना है। यथार्थ याद है, निरन्तर सहज योगी हो। सिर्फ अपनी स्टेज को बीच-बीच में पावरफुल बनाते जाओ। स्टेज पर हो, सिर्फ समय-प्रति-समय इस याद की स्टेज को पावरफुल बनाने के लिए अटेन्शन का फोर्स भरते हो। उतरती कला अब समाप्त हुई ना। वा अभी भी है? तब तो चढ़ती कला में आ गये हो ना। 

एक दिन की दिनचर्या सोचो - या तो साकारी याद वा निराकारी याद होगी। कारोबार भी यज्ञ-कारोबार है ना। यज्ञ-पिता द्वारा ही यज्ञ की रचना हुई है। तो ‘यज्ञ-कारोबार’ अक्षर कहने से बाप की याद आ गई ना। कभी भी कारोबार करते हो तो समझो - ईश्वरीय सर्विस पर हूँ वा यज्ञ-कारोबार पर हूँ। एक होता है डायरेक्ट विकर्म विनाश की स्टेज में स्थित हो फुल फोर्स से विकर्मों को नाश करना। दूसरा तरीका है जितना-जितना शुद्ध संकल्प वा मनन की शक्ति से अपनी बुद्धि को बिज़ी रखते हो, वह जो शक्तियां जमा होती हैं, तो उनसे वह धीरे-धीरे खत्म हो जायेगा। बुद्धि में यह भरने से वह पहले वाला स्वयं ही निकल जायेगा। एक होता है पहले सारा निकाल कर फिर भरना, दूसरा होता है भरने से निकालना। अगर खाली करने की हिम्मत नहीं है तो दूसरा भरते जाने से पहला आपेही खत्म हो जायेगा। वह स्टेज आपेही बनती जायेगी। एक तरफ भरता जायेगा और दूसरी तरफ खाली होता जायेगा। फिर जो स्टेज चाहते हो वह नेचरल हो जायेगी। जब चाहो तब हो जायेगी। फुल फोर्स से खाली करने की स्टेज नहीं है तो दूसरा तरीका भी है ना। भरते जाओ तो वह स्वत: खाली होता जायेगा। अभी चढ़ती कला है - यह स्मृति रखो। सभी रास्ते ब्लाक होंगे तो बुद्धि कहाँ जायेगी नहीं। यज्ञ-कारोबार अथवा कर्मणा सर्विस की भी मार्क्स हैं ना। फिर भी ‘पास-विद्-आनर्स’ में वह 100 मार्क्स भी हेल्प देंगे ना। लेकिन जरूरी है - जिस समय कारोबार वा वाचा सर्विस करनी है तो लक्ष्य यह रखना चाहिए कि यह ईश्वरीय सर्विस है, यज्ञ- कारोबार है। तो आटोमेटिकली यज्ञ-रचयिता की स्मृति आयेगी। और कोई भी कार्य करते हो तो समझो - इस कार्य के निमित्त बनाने वाला बैकबोन कौन है! भले मैं निमित्त हूँ, लेकिन बैकबोन कौन है! बिना बैकबोन आप शरीर में ठहर सकते हो? बिना बैकबोन के आप कोई कर्म में सफलता भी नहीं पा सकते। कोई भी कार्य करते सिर्फ यह सोचो - मैं निमित्त हूँ, कराने वाला कौन है। जैसे भक्ति-मार्ग में शब्द उच्चारण करते थे ‘करन-करावनहार।’ लेकिन वह दूसरे अर्थ से कहते थे। लेकिन इस समय जो भी कर्म करते हो उसमें करन- करावनहार तो है ना। कराने वाला बाप है, करने वाला निमित्त है। अगर यह स्मृति में रख कर्म करते हैं तो सहज स्मृति नहीं हुई? निरन्तर योगी नहीं हुए? फिर कभी हंसी में नीचे आयेंगे भी तो ऐसे अनुभव करेंगे जैसे हू-ब-हू स्टेज पर कोई ऐक्टर होते हैं तो समझते हैं कि लोक-कल्याण अर्थ हंसी का पार्ट बजाया। फिर अपनी स्टेज पर तो बिल्कुल ऐसे अनुभव होगा जैसे अभी-अभी यह पार्ट बजाया, अब दूसरा पार्ट बजाता हूँ। खेल महसूस होगा। साक्षी हो जैसे पार्ट बजा रहे हैं। तो सहज योगी हुए ना। याद को भी सहज करो। जब यह याद का कोर्स सहज हो जायेगा तब कोई को कोर्स देने में याद का फोर्स भी भर सकेंगे। सिर्फ कोर्स देने से प्रजा बनती है लेकिन फोर्स के साथ कोर्स में समीप सम्बन्ध में आते हैं। बिल्कुल ऐसे अनुभव करेंगे जैसे न्यारे और प्यारे। तो सभी सहज योगी हैं। हठ न करो। 63 जन्म मुश्किलात देखते-देखते यह एक जन्म सहज पुरूषार्थ में भी अगर मुश्किलातों में ही रहेंगे तो सहज और स्वत: का अनुभव कब करेंगे? इनको कहते भी सहज योग हो ना। कठिन योग तो नहीं है। यह सहज योग वहाँ सहज राज्य करायेगा। वहाँ भी कोई मुश्किलात नहीं होगी। यहाँ के संस्कार ही वहाँ ले जायेंगे। अगर अन्त तक भी मुश्किल के संस्कार होंगे तो वहाँ सहज राज्य कैसे करेंगे। देवताओं के चित्र भी जो बनाते हैं तो उनकी सूरत में सरलता ज़रूर दिखाते हैं। यह विशेष गुण दिखाते हैं। फीचर्स में सरलता, जिसको आप भोलापन कहते हो। जितना जो सहज पुरुषार्थी होगा वह मन्सा में भी सरल, वाचा में भी सरल, कर्म में भी सरल होगा। इनको ही फरिश्ता कहते हैं। अच्छा।